बुधवार, 9 सितंबर 2015

बिहार चुनाव को लेकर मेरी कुंठाएं

सब लोग बिहार चुनाव पर कुछ न कुछ बोले रहे हैं। मेरा भी मन करता है लेकिन चुप हो जाता हूँ ये सोचकर कि कोई जीते कोई हारे किसी को क्या लेना देना। सभी नेतागण अपनी अस्तित्व बचानेे में लगे हुए हैं।
आज मुझसे भी रहा नहीं गया तो सोचा कुछ कुंठाएं जो मन में है वो बोल ही देना चाहिए। सबसे पहली बात आती है विकल्प की कि कौन सा विकल्प बिहार के लिए अच्छा होगा। मेरे समझ से अभी नेताओं ने सारे विकल्प बंद कर दिए हैं अभी कोई विकल्प कम से कम बिहार के लिए तो सुयोग्य नहीं ही है। हाँ जिनकी पहुँच जहाँ तक है तो उनको फायदा होगा अगर उनके पहुँच वाले विकल्प चुनी जाती है। इन सभी घोषणाओं से पहले मेरे पास एक विकल्प झलक रहा था नितीश कुमार का लेकिन उनका ये गठबंधन ने उस उम्मीद को भी डुबो दिया। एक दूसरा विकल्प मिला भाजपा के रूप में तो उनकी सरकार हम केंद्र में देख ही रहे हैं पिछले एक साल से। सभी वादे जुमले का रूप लेता चला गया। हाँ वो समय के साथ हो ही जाया करती है।
कितनी अजीब विडम्बना है कि जिन कुसासनो से हटाकर प्रगति के पथ पर नितीश जी ने बिहार को एक उम्मीद दी आज उन्ही को अपना बराबरी की हिस्सेदारी दे रहे हैं। कितनी अजीब विडम्बना है की भाजपा के पास इतने उपयुक्त समय होते हुए भी जब वो बिहार को कुछ देकर लुभा सकते थे पिछले एक साल में वको अब जाकर घोषणा करनी पड़ रही है। पिछले एक साल में जितने वादों का जुमलकरण हो चूका है उस हिसाब से तो ये बहुत बड़ा जुमला लगता है। अगर पैसों की वजह से ही बिहार का विकास रुका हुआ था तो पिछले बजट में बहुत कुछ केंद्र सरकार दे सकती थी बिहार को और नितीश के मांग विशेष दर्जे में क्या बुराई थी।
कुल मिलाकर कहा जाए तो अगर नितीश जी अकेले मैदान में उतरते तो सबसे प्रबल विकल्प मेरी नज़रों में वी होते। और अगर पिछले एक साल में मोदी जी बिहार के लिए कुछ कर देते तो शायद उनकी भी जगह बन सकती थी। लेकिन अभी जो भी विकल्प है वो सब स्वार्थ निहित ही दिखाई पड़ रही है।
सरकार किसी की बने, चाहे किसी गठबंधन को ज्यादा सीटें मिल जाये या बाद में कुछ तोड़ जोड़ करके सरकार बने हाँ जैसे जम्मू में बना है, जनता को शायद निराशा ही हाथ लगेगी।